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मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

गोकुल ग्राम

 




आज से लगभग 5 हजार 125 वर्ष पूर्व उत्तरप्रदेश के मथुरा में का जन्म हुआ था। गोकुल मथुरा से 15 किलोमीटर दूर है। यमुना के इस पार मथुरा और उस पार गोकुल है। मथुरा के बाद गोकुल की यात्रा करना चाहिए। दुनिया के सबसे नटखट बालक ने वहां 11 साल 1 माह और 22 दिन गुजारे थे।

महावन और गोकुल एक ही है। फिलहाल 8 हजार की आबादी वाला यह गांव उस काल में कैसे रहा होगा, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। कहा जाता है कि उस काल में इसका नाम गोकुल नहीं था। गो, गोप, गोपी आदि का समूह वास करने के कारण महावन को ही गोकुल कहा जाने लगा।

वर्तमान की गोकुल को औरंगजेब के समय श्रीवल्लभाचार्य के पुत्र श्रीविट्ठलनाथ ने बसाया था। गोकुल से आगे 2 किमी दूर महावन है। लोग इसे पुरानी गोकुल कहते हैं। यहां चौरासी खम्भों का मंदिर, नंदेश्वर महादेव, मथुरा नाथ, द्वारिका नाथ आदि मंदिर हैं।
मथुरा में कृष्ण के जन्म के बाद कंस के सभी सैनिकों को नींद आ गई थी और वासुदेव की बेड़ियां किसी चमत्कार से खुल गई थी। तब वासुदेवजी भगवान कृष्ण को गोकुल में नंदराय के यहां आधी रात को छोड़ आए थे। नंद के घर लाला का जन्म हुआ है, ऐसी खबर धीरे-धीरे गांव में फैल गई। यह सुनकर सभी गोकुलवासी खुशियां मनाने लगे। कृष्ण और बलराम का पालन-पोषण यहीं हुआ।

बलराम और कृष्ण दोनों अपनी लीलाओं से सभी का मन मोह लेते थे। घुटनों के बल चलते हुए दोनों भाई को देखना गोकुल वासियों को सुख देता था। गोपियां नटखट बाल गोपाल को छाछ और माखन का लालच देकर नचाती थीं। कृष्ण ने गोकुल में रहते हुए पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदि असुरों का वध किया।

गोकुल तो गोपाल की बाल लीलाओं, नटखट अदाओं का स्थान है। गोकुल में प्रवेश करते ही हमें वह झाड़ दिखाई देता हैं, जहां बाल गोपाल बैठकर बंसी बजाते थे और पास ही के कुंड में मां यशोदा और गोकुल गांव की अन्य महिलाएं कपड़े धोती थी और नहाती भी थी। बाल गोपाल बांसुरी की धुन से सभी को मंत्रमुग्ध कर देते थे।

बंसीवट के पास से ही एक रास्ता सीधे नंद के भवन को जाता है। नंद के भवन तक जाते समय बीच में गौशाला और रासचौक पड़ता है। रासचौक जहां गांव के लोग लोक उत्सव या त्योहर पर मिलकर रास रचाते थे अर्थात नाचते, गाते और बजाते थे। पत्थरों से बने एक बड़े से द्वार में घुसकर हम रासचौक जाते हैं वहीं से अंदर रासचौक की एक गली के मुहाने से हमें नंद के भवन की दीवार दिखाई देती हैं। जहां दीवार दिखाई देती है वहीं से गली मुड़ जाती है जो हमें सीधे नंद के भवन के दरवाजे पर लाकर छोड़ती है।

भवन के अंदर संगमरमर के फर्श पर संकोचवश ही व्यक्ति पैर रख पाता है क्योंकि हर पत्थर पर उन लोगों के नाम खुदें हैं जिन्होंने नंद के भवन की देख-रेख और बाल गोपाल को प्रतिदिन लगने वाले माखन-मिश्री और लड्डू के भोग के लिए दान दिया है। कुछ और दरवाजों को पार करने के बाद आता है वह स्थान, जहां माता यशोदा भगवान कृष्ण को झूले में झूला झूलाती थी। यहां जहां भगवान झूले में सोते रहते थे।

भवन के भीतर दूसरी ओर के दरवाजे के पास ही तलघर में उतरने के बाद है वह स्थान, जहां भगवान कृष्ण ने पूतना का वध किया था। वहीं से पुन: ऊपर चढ़ने के बाद आगे एक गली है जो हमें गोकुल के बाजार की अन्य गलियों में लाकर छोड़ देती है। वहीं से एक गली में सीधे चलने के बाद हमें एक तरफ दिखाई देता है, रासचौक का द्वार और दूसरी तरफ वह पेड़... जहां बाल गोपाल बैठकर बंसी बजाया करते थे।

गुरुवार, 5 नवंबर 2020

आज आपको बताते है "उद्धव गीता" के बारे में |

उद्धव गीता, कृष्ण उद्धव संवाद और अनेक शंकाओ का समाधान, श्रीमद्भागवत गीता, इस सृष्टि में प्रत्येक जीव का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर ही संचालित होता है।

बचपन से ही उद्धव सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्री कृष्ण से कभी कोई इच्छा नहीं जताई और न कोई वरदान माँगा। वे केवल अपने मन की उन शंकाओं का समाधान चाहते थे जो उनके मन में कृष्ण की शिक्षाओं और उनके कृतित्व को देखकर उठ रही थीं कृष्ण बोले आज जो कुछ तुम जानना चाहोगे और उसका मैं जो उत्तर दूंगा, वह उद्धव गीता के रूप में जानी जायेगी। तुम बेझिझक प्रश्न पूछो।

“हे कृष्ण, सबसे पहले कृपया मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है?”

कृष्ण ने कहा – “एक सच्चा मित्र वही है जो जरूरत के समय मित्र की बिना माँगे, मदद करे।”

उद्धव – “कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीय प्रिय मित्र थे, “आपद बांधव” के रूप में (मुसीबत में सहायता करने वाले के रूप में) उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया और यह बात आप भी जानते हैं।

कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं। आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता भी हैं।
किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा आपने अभी दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार आपने स्वयं ही कार्य नहीं किया?

आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत क्रीड़ा (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं?

चलो ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आप भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में मोड़ सकते थे और अगर आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत भी सकते थे। आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक की खुद को हारने के बाद तो रोक ही सकते थे।

उसके बाद जब उन्होंने अपने भाईयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में आ सकते थे। आपने वह भी नहीं किया? उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए द्रौपदी को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप करना चाहिए था।
अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पासे के अंक धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे।

इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया। लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं कृष्ण? उसे एक आदमी घसीटकर भरी सभा में लाता है और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है। ऐसे में एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया कृष्ण, क्या बचाया? अगर आपने संकट के समय में ही अपनों की मदद नहीं की तो आपको “आपाद-बांधव” कैसे कहा जा सकता है? बताइए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा? क्या यही धर्म है?”

इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुंध गया और उनकी आंखों से आंसू बहने लगे।

भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले- “प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान व्यक्ति ही जीतता है। उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं। यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।

उद्धव को हैरान-परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- “दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसा और धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूत-क्रीड़ा के लिए उपयोग किया, जुए के पासे फेकने के लिए प्रयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूंगा। जरा विचार करके देखो, कि अगर शकुनि और मैं खेलते तो कौन जीतता? पासे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार? चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इसके लिए उन्हें माफ किया जा सकता है। लेकिन, उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की। और वह यह कि उन्होंने मुझसे प्रार्थना में बाँध लिया, प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊं, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए। क्योंकि, वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे, मुझे पता चले कि वे जुआ खेल रहे हैं।

इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बांध दिया। मुझे सभा-कक्ष में आने तक की अनुमति नहीं थी। इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतजार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है और मैं अन्दर जाऊ। भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए। बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे। अपने भाई के आदेश पर जब दुःशासन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा। उसकी बुद्धि तो तब जागृत हुई, जब दुःशासन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया। तब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर- “हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम…” की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला। जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलंब पहुंच गया। अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?”

उद्धव बोले- “कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किंतु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई। क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूं?”

कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा- “इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आना चाहिए? क्या यह आपका कर्त्तव्य नहीं हैं?”

कृष्ण मुस्कुराए- “उद्धव इस सृष्टि में हर एक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है। न तो मैं इसे चलाता हूं, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूं। मैं केवल एक “साक्षी” हूं। मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है, उसे देखता हूं। यही ईश्वर का धर्म है।”

“वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण। तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे? हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे? आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बांधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?” उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा।

तब कृष्ण बोले- “उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो। जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूं, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे? तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे। लेकिन, जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फंसते हो।”

धर्मराज को यह अज्ञान था कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता हैं अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी के रूप में उपस्थित हूँ तो खेल का कुछ और ही रूप होता।

भक्ति से अभिभूत मंत्रमुग्ध होकर उद्धव बोले प्रभु कितना गहरा दर्शन आपने दिया, कितना महान सत्य हैं, प्रार्थना पूजा पाठ तो ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना, यह तो हमारी भावना और विश्वास हैं, जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि ईश्वर के बिना तो पता भी नहीं हिल सकता, हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थति महसूस होने लग जाती हैं, गड़बड़ केवल तभी होती हैं, जब उसे भूलकर दुनियादारी में डूब जाते हैं

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2020

“सांकरी खोर”

 “सांकरी खोर”


सांकरी गली एक ऐसी गली है जिससे एक – एक गोपी ही निकल सकती है और उस समय उनसे श्याम सुंदर दान लेते हैं | सांकरी खोर पर सामूहिक दान होता है | श्याम सुन्दर के साथ ग्वाल बाल भी आते हैं | कभी तो वे दही लूटते हैं, कभी वे दही मांगते हैं, और कभी वे दही के लिए प्रार्थना करते हैं |
साँकरी खोर प्रार्थन मन्त्र
दधि भाजन शीष्रा स्ताः गोपिकाः कृष्ण रुन्धिताः|
तासां गमागम स्थानौ ताभ्यां नित्यं नमश्चरेत ||
इस मन्त्र का भाव है कि गोपियाँ अपने शीश पर दही का मटका लेकर चली आ रही हैं और श्री कृष्ण ने उनको रोक रखा है | उस स्थान को नित्य प्रणाम करना चाहिए, जहाँ से गोपियाँ आ-जा रही हैं |
यहाँ जो ये राधा रानी का पहाड़ है वो गोरा है | सामने वाला पहाड़ श्याम सुंदर का है और वो शिला कुछ काली है | काले के बैठने से पहाड़ काला हो गया और गोरी के बैठने से कुछ गोरा हो गया | पहले राधा रानी की छतरी है फिर श्याम सुंदर की छतरी है और नीचे मन्सुखा की छतरी है | यहाँ दान लीला होती है | यहाँ नन्दगाँव वाले दही लेने आये थे एकादशी में तो सखियों ने पकड़कर उनकी चोटी बांध दी थी | श्याम सुंदर की चोटी ऊपर बाँध देती हैं और मन्सुखा की चोटी नीचे बांध देती हैं |
मन्सुखा चिल्लाता है कि हे कन्हैया इन बरसाने की सखियों ने हमारी चोटी बांध दी हैं |जल्दी से आकर के छुड़ा भई , तो श्याम सुंदर बोलते हैं कि अरे ससुर मैं कहाँ से छुड़ाऊं | मेरी भी चोटी बंधी पड़ी है | सखियाँ दोनों के साथ-साथ सब की चोटी बाँध देती हैं | और फिर सखियाँ कहती हैं कि चोटी ऐसे नहीं खुलेगी | राधा रानी की शरण में जाओ तब तुम्हारी चोटी खुलेगी | सब श्री जी की शरण में जाते हैं और प्रार्थना करते हैं | तब श्री जी की आज्ञा से सब की चोटी खुलती हैं | श्री जी कहती हैं कि इनकी चोटी खोल दो | श्याम सुंदर प्यारे को इतना कष्ट क्यों दे रही हो ? गोपी बोली कि ये चोटी बंधने के ही लायक हैं |
ये लीला यहाँ राधाष्टमी के तीन दिन बाद होती है | उस दिन यहाँ श्याम सुंदर मटकी फोड़ते हैं और नन्दगाँव के सब ग्वाल बाल आते हैं | श्री जी और सखियाँ मटकी लेकर चलती हैं तो श्याम सुन्दर कहते हैं कि तुम दही लेकर कहाँ जा रही हो ? तो सखियाँ कहती हैं कि ऐ दही क्या तेरे बाप का है ? ऐसो पूछ रहे हो जैसे तेरे नन्द बाबा का है | दही तो हमारा है | वहाँ से श्याम सुंदर बातें करते हुए चिकसौली की ओर आते हैं और यहाँ छतरी के पास उनकी दही कि मटकी तोड़ देते हैं | जहाँ मटकी गिरी है वो जगह आज भी चिकनी है वो सब लोग अभी देख सकते हैं |
यहाँ बीच में (सांकरी खोर में) ठाकुर जी के हथेली व लाठी के चिन्ह भी हैं | ये सब ५००० वर्ष पुराने चिन्ह हैं | ये सांकरी गली दान के लिये पूरे ब्रज में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है | वैसे तो श्याम सुंदर हर जगह दान लेते थे पर दान की ३-४ स्थलियाँ प्रसिद्ध हैं | ये हैं बरसाने में सांकरी खोर, गोवर्धन में दान घाटी व वृन्दावन में बंसी वट , पर इन सब में सबसे प्रसिद्ध सांखरी खोर है क्योंकि एक तो यहाँ पर चिन्ह मिलते हैं और दूसरा यहाँ आज भी मटकी लीला चल रही है | राधाष्टमी के पांच दिन के बाद नन्दगाँव के गोसाईं बरसाने में आते हैं |
यहाँ आकर बैठते हैं उस दिन पद गान होता है |
(बरसानो असल ससुराल हमारो न्यारो नातो — भजन) मतलब बरसाना तो हमारी असली ससुराल है ! आज तक नन्दगाँव और बरसाने का सम्बन्ध चल रहा है जो रंगीली के दिन दिखाई पड़ता है | सुसराल में होली खेलने आते हैं नन्दलाल और गोपियाँ लट्ठ मारती हैं| वो लट्ठ की मार को ढाल से रोकते हैं और बरसाने की गाली खाते हैं | यहाँ मंदिर में हर साल नन्दगाँव के गोसाईं आते हैं और बरसाने की नारियाँ सब को गाली देती हैं | इस पर नन्दगाँव के सब कहते हैं “वाह वाह वाह !”
इसका मतलब कि और गाली दो | ऐसी यहाँ की प्रेम की लीला है | बरसाने की लाठी बड़ी खुशी से खाते हैं , उछल – उछल के और बोलते हैं कि जो इस पिटने में स्वाद आता है वो किसी में भी नहीं आता है | बरसाने की गाली और बरसाने की पिटाई से नन्दगाँव वाले बड़े प्रसन्न होते हैं | ऐसा सम्बन्ध है बरसाना और नन्दगाँव में |
साँकरी खोर में दान लीला भी सुना देते हैं | साँकरी खोर की लीला सुना रहे हैं | इसे मन से व भाव से सुनो | ध्यान लगाकर सुनोगे तो लीला दिखाई देगी | साँकरी खोर में गोपियाँ जा रही हैं | दही की मटकी है सर पर | वहाँ श्री कृष्ण मिले | कृष्ण के मिलने के बाद वो कृष्ण के रूप से मोहित हो जाती हैं और लौट के कहती हैं कि वो नील कमल सा नील चाँद सा मुख वाला कहाँ गया ? अपनी सखी से कहती हैं कि मैं साँकरी खोर गयी थी |
सखी हों जो गयी दही बेचन ब्रज में , उलटी आप बिकाई |
बिन ग्रथ मोल लई नंदनंदन सरबस लिख दै आई री
श्यामल वरण कमल दल लोचन पीताम्बर कटि फेंट री
जबते आवत सांकरी खोरी भई है अचानक भेंट री
कौन की है कौन कुलबधू मधुर हंस बोले री
सकुच रही मोहि उतर न आवत बलकर घूंघट खोले री
सास ननद उपचार पचि हारी काहू मरम न पायो री
कर गहि बैद ठडो रहे मोहि चिंता रोग बतायो री
जा दिन ते मैं सुरत सम्भारी गृह अंगना विष लागै री
चितवत चलत सोवत और जागत यह ध्यान मेरे आगे री
नीलमणि मुक्ताहल देहूँ जो मोहि श्याम मिलाये री
कहै माधो चिंता क्यों विसरै बिन चिंतामणि पाये री ||
तो एक पूछती है कि तू बिक गई ? तुझे किसने खरीदा ? कितने दाम में खरीदा ? बोली मुझे नन्द नन्दन ने खरीद लिया | मुफ्त में खरीद लिया | मेरी रजिस्ट्री भी हो गई | मैं सब लिखकर दे आयी कि मेरा तन, मन, धन सब तेरा है | मैं आज लिख आयी कि मैं सदा के लिए तेरी हो गई | मैं वहाँ गई तो सांवला सा, नीला सा कोई खड़ा था | नील कमल की तरह उसके नेत्र थे, पीताम्बर उसकी कटि में बंधा हुआ था | मैं जब आ रही थी तो अचानक मेरे सामने आ गया | मैं घूँघट में शरमा रही थी |
उसने आकर मेरा घूँघट खोल दिया और मुझसे बोला है कि तू किसकी वधु है ? किस गाँव की बेटी है ? वो मेरा अता पता पूछने लग गया |
ये वही ब्रज है,
यहाँ चलते – चलते अचानक कृष्ण सामने आ जाते हैं,
इसीलिए तो लोग ब्रज में आते हैं |
ये वही ब्रज है,
लोग भगवान को ढूँढते हैं और भगवान यहाँ स्वयं ढूंढ रहे हैं और
गोपियों का अता पता पूछ रहे हैं |
ये वही ब्रज है,
गोपी बोल नहीं रही है लज्जा के कारण और
श्याम उसका घूँघट खोल रहे हैं |

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गोपी आगे कहती है कि जिस दिन से मैंने उन्हें देखा है मुझे सारा संसार जहर सा लगता है | कहाँ जाऊं क्या करूं ? बस एक ही बात है दिन रात मेरे सामने आती रहती हैं | सोती हूँ तो, जागती हूँ तो उसकी ही छवि रहती है मेरे सामने | कौन सी बात ? किसकी छवि ?
गोपाल की !
घर में मेरी सास नन्द कहती हैं कि हमारी बहु को क्या हो गया है ?
वैद्य बुलाया गया कि मुझे क्या रोग है ? वैद्य ने नबज देखी और देखकर कहा सब ठीक है | कोई रोग नहीं है | केवल एक ही रोग है – चिंता ! कोई जो मुझे श्याम का रूप दिखा दे तो मैं उसको नील मणि दूंगी | जो मुझे श्याम से मिला दे, मुझे मेरे प्यारे से मिला दे | उसे मैं सब कुछ दे दूंगी |
बरसाना (१५संहिता अध्याय श्री गर्ग)
पृष्ठ ७८-७९
एक साँकरी खोर की बहुत मीठी लीला है |
एक दिन की बात है कि राधा रानी अपने वृषभान भवन में बैठी थीं | श्री ललिता जी व श्री विशाखा जी गईं और बोलीं कि हे लाड़ली तुम जिनका चिन्तन करती हो वो श्री कृष्ण – श्री नंदनंदन नित्य यहाँ वृषभानुपुर में आते हैं | वे बड़े ही सुन्दर हैं !
श्री राधा रानी बोलीं तुम्हें कैसे पता कि मैं किसका चिंतन करती हूँ ? प्रेम तो छिपाया जाता है |
ललिता जी व विशाखा जी बोलीं हमें मालूम है तुम किनका चिन्तन करती हो | श्रीजी बोलीं कि बताओ किसका चिन्तन करती हूँ ?
देखो ! कहकर उन्होंने बड़ा सुंदर चित्र बनाया श्री कृष्ण का | चित्र देखकर श्री लाड़ली जी प्रसन्न हो गयीं और फिर बोलीं कि तुम हमारी सखी हो | हम तुमसे क्या कहें ?

चित्र को लेकर के वो अपने भवन में लेट जाती हैं और उस चित्र को देखते – देखते उनको नींद आ जाती है | स्वप्न में उनको यमुना का सुन्दर किनारा दिखाई पड़ा | वहाँ भांडीरवन के समीप श्री कृष्ण आये और नृत्य करने लग गये | बड़ा सुंदर नृत्य कर रहे थे की अचानक श्री लाड़ली जी की नींद टूट गई और वो व्याकुल हो गयीं | उसी समय श्री ललिता जी आती हैं और कहती हैं कि अपनी खिड़की खोलकर देखो | सांकरी गली में श्री कृष्ण जा रहे हैं | श्री कृष्ण नित्य बरसाने में आते हैं | एक बरसाने वाली कहती है कि ये कौन आता है नील वर्ण का अदभुत युवक नव किशोर अवस्था वाला , वंशी बजाता हुआ निकल जाता है |
आवत प्रात बजावत भैरवी मोर पखा पट पीत संवारो |
मैं सुन आली री छुहरी बरसाने गैलन मांहि निहारो
नाचत गायन तानन में बिकाय गई री सखि जु उधारो
काको है ढोटा कहा घर है और कौन सो नाम है बाँसुरी वालो
श्री कृष्ण आ रहे हैं | कभी-कभी वंशी बजाते-बजाते नाचने लग जाते हैं | इसीलिए उन्हें श्री मद्भागवत में नटवर कहा गया है | नटवर उनको कहते हैं जो सदा नाचता ही रहता है | सखी ये कैसी विवश्ता है कि मैं अधर में खो गई और मिला कुछ नहीं | कौन है ? कहाँ रहता है ? बड़ा प्यारा है ! किसका लड़का है ? इस बांसुरी वाले का कोई नाम है क्या ?
ललिता जी कहती हैं कि देखो तो सही, श्री कृष्ण आ रहे हैं | आप अपनी खिड़की से देखो तो सही | वृषभानु भवन से खिड़की से श्री जी झांकती हैं तो सांकरी गली में श्री कृष्ण अपनी छतरी के नीचे खड़े दिखते हैं | उन्हें देखते ही उनको प्रेम मूर्छा आ जाती है | कुछ देर बाद जब सावधान होती हैं तो ललिता जी से कहती हैं कि तूने क्या दिखाया ? मैं अपने प्राणों को कैसे धारण करू ?

ललिता जी श्री कृष्ण जी के पास जाती हैं और उनसे श्री जी के पास चलने का अनुग्रह करती हैं |

ये राधिकायाँ मयि केशवे मनागभेदं न पश्यन्ति हि दुग्धशौवल्यवत् |
त एव में ब्रह्मपदं प्रयान्ति तद्धयहैतुकस्फुर्जितभक्ति लक्षणाः ||३२||

वहाँ श्री कृष्ण कहते हैं कि हे ललिते, भांडीरवन में जो श्री जी के प्रति प्रेम पैदा हुआ था वो अद्भुत प्रेम था | मुझमें और श्री जी में कोई भेद नहीं है | दूध और दूध की सफेदी में कोई भेद नहीं होता है | जो दोनों को एक समझते हैं वो ही रसिक हैं | थोड़ी सी भी भिन्नता आने पर वो नारकीय हो जाते हैं |
ये बात शंकर जी ने भी कहा था गोपाल सहस्रनाम में |
गौर तेजो बिना यस्तु श्यामं तेजः समर्चयेत् |
जपेद् व ध्यायते वापि स भवेत् पातकी शिवे ||
हे पार्वती ! बिना राधा रानी के जो श्याम की अर्चना करता है वो तो पातकी है |
श्री कृष्ण बोले कि हम चलेंगे | उनकी बात सुनकर ललिता जी आती हैं और चन्द्रानना सखी से पूछती हैं कि कोई ऐसा उपाए बताओ जिससे श्री कृष्ण शीध्र ही वश में हो जाँय |
“गर्ग संहिता” वृन्दावन खंड अध्याय १६

तुलसी का माहात्म्य, श्री राधा द्वारा तुलसी सेवन – व्रत का अनुष्ठान तथा दिव्य तुलसी देवी का प्रत्यक्ष प्रकट हो श्री राधा को वरदान

गर्ग संहिता वृंदावन खंड अध्याय १७

चन्द्रानना बोलती हैं कि हमने गर्ग ऋषि से तुलसी पूजा की महिमा सुना था | राधा रानी यहाँ पर तुलसी की आराधना करती हैं और गर्ग जी को बुलाकर आश्विनी शुक्ल पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक व्रत का अनुष्ठान करती हैं |

उसी समय तुलसी जी प्रगट होती हैं और श्री राधा रानी को अपनी भुजाओं में लपेट लेती हैं और कहती हैं कि हे राधे बहुत शीध्र श्री कृष्ण से तुम्हारा मिलन होगा |

उसी समय श्री कृष्ण एक विचित्र गोपी बनकर के आते हैं | अदभुत गोपी ! ऐसी सुन्दरता जिसका वर्णन नहीं हो सकता | गर्ग ऋषि ने उनकी सुन्दरता का वर्णन किया है कि उंगलियों में अंगूठियाँ , कौंधनी, नथ और बड़ी सुंदर बेनी सजाकर बरसाने में आते हैं और वृषभान के भवन में पहुंचते हैं | चार दीवार हैं उस भवन में और वहाँ पर बहुत पहरा है | उन पहरों में नारी रूप में पहुँच जाते हैं |

तो वहाँ क्या देखते हैं कि बड़ा सुंदर भवन है और सखियाँ अद्भुत सुन्दर वीणा मृदंग श्री राधा रानी को सुना रही हैं | उनको रिझा रही हैं | दिव्य पुष्प हैं, लताएं हैं, पक्षी हैं, जो श्री राधा नाम का उच्चारण कर रहे हैं | राधा रानी उस समय टहल रही थीं | श्री राधा रानी ने देखा कि एक बहुत सुंदर गोपी आयी है | उस गोपी को देखकर वे मोहित हो जाती हैं और उनको अपने पास बैठा लेती हैं | राधा रानी गोपी को आलिंगन करती हैं और कहती हैं कि अरे तुम ब्रज में कब आई ? हमने ऐसी सुन्दरी आज तक ब्रज में नहीं देखी है | तू जहाँ रहती है वो गाँव धन्य है | तुम हमारे पास नित्य आया करो | तुम्हारी आकृति तो श्री कृष्ण से मिलती जुलती है |

पर श्री जी पहचान नहीं पायीं | ये विचित्र लीला है | भगवान की लीला शक्ति है | श्री जी बोलीं कि जाने क्यों मेरा मोह तुम में बढ़ रहा है ?

तू मेरे पास बैठ जा | वो जब राधा रानी के पास बैठी तो बोली कि मेरा उत्तर की ओर निवास है (उत्तर में नन्दगाँव है) और हे राधे मेरा नाम है गोप देवी | हे राधे मैंने तेरे रूप की बड़ी प्रशंसा सुनी है कि तुम बड़ी सुंदर हो | इसीलिए मैं तुम्हें देखने आ गयी | तुम्हारा ये वृषभान भवन बड़ा सुंदर है जिससे लवन लताओं की अद्भुत सुगंधी आती है | फिर दोनों वहाँ बैठकर गेंद खेलती हैं |
संध्या होने पर गोप देवी कहती है कि अब मैं जाऊंगी और प्रातः काल आऊंगी | जब जाने का नाम लेती है तो श्री राधा रानी की आँखों में आंसू बहने लगते हैं | बोलती हैं कि सुन्दरी तू क्यों जा रही है ? पर गोप देवी यह कह कर चली जाती है कि कल प्रात: काल आऊंगी | रात भर श्री जी प्रतीक्षा करती रहीं |
उधर नन्द नंदन भी रात भर व्याकुल रहे | प्रातः काल फिर वे गोप देवी का रूप बना कर आते हैं तो श्री राधा रानी बहुत प्रेम से मिलती हैं |
राधा रानी बोलीं कि हे गोप देवी तू आज उदास लग रही है | क्या कष्ट है ? गोप देवी बोली कि हाँ राधे रानी हमें बहुत कष्ट है और उस कष्ट को दूर करने वाला दुनिया में कोई नहीं है | राधा रानी बोलीं कि नहीं गोप देवी तुम बताओ इस ब्रह्माण्ड में भी अगर कोई तुमको कष्ट दे रहा होगा तो मैं अपनी शक्ति से उसको दंड दूंगी |
गोप देवी नें कहा कि राधे तुम मुझे सताने वाले को दंड नहीं दे सकती | बोलीं क्यों ? बोले मुझे मालूम है तुम उसे दंड नहीं दे सकती हो | श्री जी बोलीं बताओ तो सही वो कौन है ? बोले अच्छा तो सुनो |
मैं एक दिन सांकरी गली में आ रही थी | एक नन्द का लड़का है | उसकी पहचान बताती हूँ | उसके हाथ में एक वंशी और एक लकुटी रहती है | उसने मेरी कलाई को पकड़ लिया और मुझसे बोला कि मैं यहाँ का राजा हूँ , कर लेने वाला हूँ | जो भी यहाँ से निकलता है मुझे दान देता है | तुम मुझे दही का दान दे जाओ | मैंने कहा कि लम्पट हट जा मेरे सामने से | मैं दान नहीं देती ऐसा कहने पर उस लम्पट ने मेरी मटकी उतार ली और मेरे देखते – देखते उस मटकी को फोड़ दिया | दही सब पी गया, मेरी चुनरी उतार ली और हँसता – हँसता चला गया |
यहाँ पर गोप देवी ने कृष्ण की बड़ी निंदा की है कि वो जात का ग्वाला है | काला कलूटा है | न रंग है न रूप है | न धनवान है न वीर है | हे राधे तुम मुझसे छुपाती क्यों हो ? तुमने ऐसे पुरुष से प्रेम किया है ! ये ठीक नहीं किया | यदि तुम कल्याण चाहती हो तो उस धूर्त को, उस निर्मोही को अपने मन से निकाल दो |
इतना सुनने के बाद श्री राधा रानी बोलीं अरी गोप देवी तेरा नाम गोप देवी किसने रखा ? तू जानती नहीं ब्रह्मा, शिव जी भी श्री कृष्ण की आराधना करते हैं |
यहाँ पर श्री कृष्ण की भगवत्ता का राधा रानी ने बड़ा सुंदर वर्णन किया है !
राधा रानी बोलीं कि जितने भी अवतार हैं – दत्तात्रैय जी, शुकदेव जी, कपिल भगवान्, आसुरि और आदि ये सब भगवान श्री कृष्ण की आराधना करते हैं | और तू उनको काला कलूटा ग्वाला कहती है ! उनके सामान पवित्र कौन हो सकता है | गौ रज की गंगा में जो नित्य नहाते हैं | उनसे पवित्र क्या कोई हो सक ता है ? क्या गौ से अधिक पवित्र करने वाली कोई वस्तु है संसार में |
राधा रानी बहुत बड़ी गौ भक्त थीं | यहाँ तक कि जब श्री कृष्ण ने वृषासुर को मारा था तो राधा रानी और सब गोपियों ने कहा था कि श्री कृष्ण हम तुम्हारा स्पर्श नहीं करेंगी | तुम को गौ हत्या लग गई है | हम तुम्हें छू नहीं सकती | ऐसी गौ भक्त थीं राधा रानी |
आगे राधा रानी कहती हैं कि तू उनकी बुराई कर रही है ? वो नित्य गायों का नाम जपते हैं | दिन रात गायों का दर्शन करते हैं | मेरी समझे में जितनी भी जातियाँ होगीं उनमें से सबसे बड़ी गोप जाति है | क्यों ? क्योंकि ये गाय की सेवा करते हैं | इसलिए गोप वंश से अधिक बड़े कोई देवता भी नहीं हो सकते | गोप देवी तू श्याम को काला कलूटा बताती है ? तो बता उस श्याम से भी कहीं अधिक सुंदर वस्तु है | स्वयं भगवान नीलकंठ शिव भी उनके पीछे दिन रात दौड़ते रहते हैं | राधा रानी बोलीं कि वे जटाजूट धारी, हलाहल विष को भी पीने वाले शक्तिधारी, सर्पों का आभूषण पहनने वाले उस काले कलूटे के लिए ब्रज में दौड़ते रहते हैं | तू उसे काला कलूटा कहती है ? सारा ब्रह्माण्ड जिस लक्ष्मी जी के लिये तरसता है वे लक्ष्मी जी उनके चरणों में जाने के लिये तपस्या करती हैं |
तू उन्हें निर्धन कहती है ? निर्धन ग्वाला कहती है ? जिनके चरणों को लक्ष्मी तरस रही हैं, तू कहती है कि उनमें न बल है और न तेज है | बता वकासुर, कालिया नाग, यमुलार्जुन, पूतना, आदि का वध करने वाला क्या निर्बल है ? कोटि – कोटि ब्रह्माण्ड का एक मात्र सृष्टा और उनको तू बलहीन कहती है ? सब जिनकी आराधना करते हैं तू उन्हें निर्दय कहती है ? वो अपने भक्तों के पीछे – पीछे घूमा करते हैं और कहते हैं कि भक्तों की चरण रज हमको मिल जाये और तू उनको तू निर्दय कहती है ?
जब ऐसी बातें सुनी तो गोप देवी बोली राधे तुम्हारा अनुभव अलग है और हमारा अनुभव अलग है | ठीक है कालिया नाग को मारा होगा इन्होंने लेकिन ये कौन सी सुशीलता थी कि मैं अकेली जा रही थी और मुझ अकेली की उन्होंने कलाई पकड़ ली | ये भी क्या कोई गुण हो सकता है ?
गोप देवी की बात सुनकर राधा रानी बोलीं कि तू इतनी सुंदर होकर के भी उनके प्रेम को नहीं समझ सकी ? बड़ी अभागिन है | तेरा सौभाग्य था पर अभागिन तुमने उसको अनुचित समझ लिया | तुमसे अभागिन संसार में कोई नहीं होगा |

गोप देवी बोली तो मैं क्या करती ? अपना सौभाग्य समझ के क्या अपना शील भंग करवाती ? श्री राधा रानी बोलीं अरी सभी शीलों का सार, सभी धर्मो का सार तो श्री कृष्ण ही हैं | तू उसे शील भंग समझती है?
बात बढ़ गई | तो गोप देवी बोली कि अगर तुम्हारे बुलाने से श्री कृष्ण यहाँ आ जाते हैं तो मैं मान लुंगी कि तुम्हारा प्रेम सच्चा है और वो निर्दय नहीं है | और यदि नहीं आये तो ? तो राधा रानी बोलीं कि देख मैं बुलाती हूँ और यदि नहीं आये तो मेरा सारा धन, भवन, शरीर तेरा है |
शर्त लग गई प्रेम की | इसके बाद श्री जी बैठ जाती हैं आसन लगाकर और मन में श्री कृष्ण का आह्वान करने लग जाती हैं | बड़े प्रेम से बुलाती हैं | श्री कृष्ण का एक – एक नाम लेकर बुलाती हैं |
श्यामेति सुंदरवरेति मनोहरेति कंदर्पकोटिललितेति सुनागरेति |
सोत्कंठमह्नि गृणती मुहुराकुलाक्षी सा राधिका मयि कदा नु भवेत्प्रसन्ना||
(श्री राधासुधानिधी ३७)
इस श्लोक का मतलब मुझे एक बार पंडित हरिश्चंद्र जी ने समझाया था |
पहले तो राधा रानी ने ‘श्याम’ कहा और उसके बाद तुरंत बोलीं ‘सुंदर’ ताकि कहीं कोई ऐसा नहीं समझ ले कि श्याम तो काला होता है , तो तुरंत उसको सम्भाल लिया | अच्छा फिर सोचा सुंदर भी बहुत से होते हैं लेकिन सौत को सौत की सुन्दरता बुरी लगती है | अगर चित्त नहीं लुटा, अगर मन नहीं लुटा तो सुन्दरता किस काम की तो उन्होंने तुरंत कहा कि मन को हरण कर लेते हैं |
तो बोले कि मन तो गोद का एक बच्चा भी हर लेता है | बोलीं मन हरण करने का ढंग दूसरा है | बड़ा चतुर है | फिर सोचने लगी सुंदर हो पर चतुर नहीं हुआ तो किस काम का ? प्रेम में चतुरता तो चाहिये , नहीं तो भाव ही नहीं समझ पायेंगे | श्री जी बोलीं भाव समझने वाला है !
इस तरह से श्री कृष्ण का आह्वान कर रही थीं | गोप देवी जो बैठी हुई थी उसका शरीर कुछ कांपने लगा | जैसे ही प्रेम का आकर्षण बढ़ा तो श्री कृष्ण समझ गये कि अब ये हमारा रूप छूटने वाला है | प्रेम में अद्भुत शक्ति होती है | श्री कृष्ण के शरीर में रोमांच होने लग गया और बोले कि अब मैं संभाल नहीं सकता अपने आपको |
उन्होंने देखा कि राधा रानी के नेत्रों में आंसू थे और वे मुख से श्री कृष्ण का नाम ले रही थीं |तुरंत श्री कृष्ण अपना रूप बदलकर श्री राधे राधे कहते आये | राधा रानी ने देखा कि श्री कृष्ण खड़े हैं | श्याम सुंदर ने कहा कि हे लाड़ली जी आपने हमें बुलाया इसलिये मैं आ गया | आप आज्ञा दीजिये | श्री जी चारों ओर देखने लगीं |
श्री कृष्ण बोले आप किसको देख रही हैं | मैं तो सामने खड़ा हूँ | बोली मैं तुम्हें नहीं उस गोप देवी को देख रही हूँ | कहाँ गई ? श्री कृष्ण बोले कौन थी ? कोई जा तो रही थी जब मैं आ रहा था | राधा रानी ने सारी बात बताई तो बोले कि आप बहुत भोली हैं | अपने महल में ऐसी नागिनों को मत आने दिया करो |
(ये है सांकरी खोर की लीला)
ब्रज भक्ति विलास के मत में – बरसाने में ब्रह्मा एवं विष्णु दो पर्वत हैं | विष्णु पर्वत विलास गढ़ है शेष ब्रह्मा पर्वत है | दोनों के मध्य सांकरी गली है | जहाँ दधि दान लीला सम्पन्न होती है |
सांकरी – संकीर्ण एवं खोर – गली | सभी आचार्यों ने यहाँ की लीला गाई है | श्री हित चतुरासी – ४९
ये दोउ खोरि, खिरक, गिरि गहवर
विरहत कुंवर कंठ भुज मेलि |
अष्टछाप में परमानंद जी ने भी सांकरी खोर की लीला गाई है |
परमानन्द सागर २७३
आवत ही माई सांकरी खोरि |
हित चतुरासी – ५१
दान दै री नवल किशोरी |
मांगत लाल लाडिलौ नागर
प्रगत भई दिन- दिन चोरी ||
महावाणी सोहिली से
सोहिली रंग भरी रसीली सुखद सांकरी खोरि ||
केलिमाल – पद संख्या ६२
हमारौ दान मारयौ इनि | रातिन बेचि बेचि जात ||
घेरौ सखा जान ज्यौं न पावैं छियौ जिनि ||
देखौ हरि के ऊज उठाइवे की बात राति बिराति
बहु बेटी काहू की निकसती है पुनि |
श्री हरिदास के स्वामी की प्रकृति न फिरि छिया छाँड़ौ किनि ||
सांकरी खोर में दधि मटकी फूटने का चिन्ह व श्री कृष्ण की हथेली का चिन्ह भी है | विलासगढ़ की ओर का पर्वत कृष्ण पक्ष का होने से कुछ श्याम है, जिस पर ऊपर श्री कृष्ण की छतरी और नीचे मधु मंगल की छतरी है | दधिदान के अतिरिक्त यहाँ चोटी बन्धन लीला भी हुई थी जिसमें सखियों ने नटखट कृष्ण और मधु मंगल आदि की अलग अलग चोटी बाँधी थी | पीछे ‘श्री जी’ ने कृपा वश छुड़ाया | यह लीला इस गली में प्रति वर्ष भाद्र शुकल एकादशी को होती है , तथा दधिदान लीला त्रयोदशी में होती है 

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

भगवान् श्री कृष्ण ने कंस को मारकर यहाँ विश्राम किया और यही पर अपना मुकुट, बांसुरी, और सुदर्शन को रखा था |

 यमुना मैया की जय 

यमुना मैया/विश्राम घाट

विश्राम घाट, श्री द्वारिकाधीश जी मंदिर से 30 मीटर की दूरी पर, नया बाज़ार में स्थित है | यह मथुरा जी के 25 घाट में से एक प्रमुख घाट है | श्री यमुना महारानी जी की आरती विश्राम घाट से की जाती है | विश्राम घाट पर संध्या के समय श्री यमुना जी महारानी की भव्य आरती होती है और इस आरती में पांच पंडित पांच भव्य आरती से माँ यमुना जी की आरती करते है |

श्री विश्राम घाट पर श्री यमुना महारानी के अलावा और भी मंदिर स्थित है | भगवान् श्री कृष्ण और बलराम जी मुकुट मंदिर, नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर, राधा दामोदर मंदिर, यमुना कृष्ण मंदिर, लांगली हनुमान मंदिर, नरसिंह मंदिर, मुरली मनोहर मंदिर, भगवान् यमराज महाराज और यमुना महारानी मंदिर आदि स्थित है |
यमुना जी के तट पर विश्राम घाट स्थित है | यह मथुरा का सर्वप्रधान एवं प्रसिद्ध घाट है| भगवान् श्री कृष्ण ने कंस का वध कर इस स्थान पर विश्राम किया था इसलिए यहाँ की महिमा अपरम्पार है | कहा जाता है कि भगवान् श्री कृष्ण ने महाबली कंस को मारकर ध्रुव घाट पर उसकी अंत्येष्टि संस्कार करवा कर बन्धु बान्धव के साथ यमुना के इस पवित्र घाट पर स्नान कर विश्राम किया था| भगवान् श्री कृष्ण की लीला में ऐसा संभव है परन्तु सर्वशक्तिमान स्वयं भगवान् को विश्राम की क्या आवश्यकता |किन्तु भगवान् से भूले भटके जन्म मृत्यु के अनन्त, अथाह सागर में डूबते उबरते हुए क्लान्त जीवो के लिए यह अवश्य ही विश्राम का स्थान है |

पौराणिक कथा 
कथा के अनुसार भगवान् सूर्य की पत्नी संज्ञा के पुत्र यमराज और यमुना थी ||लेकिन सूर्य के ताप को सहन नहीं करने की वजह से उन्होंने अपनी छाया को छोड़कर स्वयं चली गयी |छाया से शनि और ताप्ति पैदा हुयी| छाया का यमुना और यम से अच्छा व्यवहार नहीं होने पर यम ने एक नई नगरी का निर्माण किया एक बार यमुना ने भाई यम से अपने घर आने का आग्रह किया जहाँ उन्होंने अपने भाई का खूब सत्कार किया जिससे प्रसन्न होकर यम ने वर मांगने को कहा| यमुना ने वर में यह माँगा कि मेरे जल में स्नान करने वाले चाहे स्त्री हो या पुरुष यम लोक ना जाए| यह वरदान देना यम के लिए मुश्किल था |इस बात का ज्ञान होते ही यमुना बोली आप चिंता न करें मुझे यह वरदान दे कि जो लोग आज के दिन( भाई दूज वाला दिन) मेरे जल में स्नान करें वे तुम्हारे लोक को न जाएँ इसे यमराज ने स्वीकार कर लिया |

जनश्रुतियों एवं 
एक कथा के अनुसार राजा अम्बरीश ने एक बार अपनी पत्नी के साथ श्री कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए वर्ष की सभी एकादशियों के व्रत का नियम किया ! वर्ष पूरा होने पर पारण के दिन उन्होने धूमधाम से भगवान की पूजा की ! ब्राह्मणो को गौ दान किया ! यह सब करके जब वे पारण करने के लिए जा रहे थे तभी महर्षि दुर्वासा पधारे ! राजा ने उनका सत्कार किया और भोजन करने का आग्रह किया ! ऋषि दुर्वासा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और स्नान करने यमुना तट पर चले गए ! द्वादशी मे केवल एक घड़ी शेष थी ! द्वादशी मे पारण न करने से व्रत भंग होता ! उधर दुर्वासा जी कब आएंगे यह पता नहीं था ! अतिथि से पहले भोजन करना अनुचित था ! ब्राह्मणो से व्यवस्था लेकर राजा ने भगवान के चरणोदक (वह जल जिससे भगवान के चरण धोये हो ) को लेकर पारण कर लिया और भोजन के लिए ऋषि की प्रतीक्षा करने लगे !महर्षि ने स्नान करके लौटते ही तपोबल से राजा का पारण करने की बात जान ली फिर वह अत्यंत क्रोधित हुये कि मेरे भोजन के पहले इसने क्यो पारण किया ! उन्होने मस्तक से एक जटा उखाड़ी और उसे ज़ोर से पटक दिया उसकी कालग्नि से कृत्या नाम भयानक राक्षसी निकली ! वह राक्षसी राजा को मारने दौड़ी ! परंतु भगवान का सुदर्शन चक्र तो भगवानकी आज्ञा से पहले  से ही राजा की रक्षा मे नियुक्त था उसने पालक मारते ही कृत्य को भष्म ककर डाला और दुर्वासा की खबर लेने उनकी ओर दौड़ा ! सुदर्शन को अपनी ओर आता देख दुर्वासा प्राण लेकर भागे ! वे दशों दिशाओ, पर्वतो की गुफाओ, आकाश-पाताल सब जगह भागते गए परंतु सुदर्शन ने उनका पीछा नहीं छोड़ा ! इंद्रादि लोकपाल तो उन्हे क्या शरण देते, स्वयं ब्रहम्मा और शिव ने भी उनको भगवान विष्णु के पास जाने को कहा ! दुर्वासा त्राहि मां कहते हुये उनकी शरण मे गए ! भगवान ने कहा कि हे ऋषि तुम्हें सुदर्शन से मैं भी नहीं बचा सकता क्योंकि जो मेरे भक्तो का अहित करने कि सोचता है उसको मैं भी नहीं बचाता अतः तुम राजा अम्बरीष कि ही शरण मे जाओ वही तुम्हें सुदर्शन से बचा सकते है !वर्ष भर के बाद दुर्वासा जी जैसे भागे थे वैसे ही भयभीत होकर दौड़ते हुये आये और राजा से क्षमा मांगी तो राजा को बहुत संकोच हुआ और उन्होने सुदर्शन की स्तुति करके सुदर्शन को यही विश्राम घाट पर शान्त किया था ! इसी स्थान पर सुदर्शन अंतर्ध्यान हुये थे !

प्रिये कृष्ण भक्तो से मेरी विनती है कि अगर पोस्ट पसंद  आई हो तो कृपया इसे शेयर और मेरे ब्लॉग को फॉलो कीजिये ! आप लोग  जो भी जानना चाहते हो मुझे कमेंट करके बताइये मैं उस टॉपिक पर अपनी पूरी कोशिश करते हुये और खोज करके मैं अपने  ब्लॉग पर अवश्य पोस्ट करूंगा और आपका नाम भी अवश्य लिखुंगा !
                                                                 राधे राधे   




 


मंगलवार, 6 अक्टूबर 2020

श्री कृष्ण से जुडी अनजानी और रहस्यमयी बातें |

 भगवान् श्री कृष्ण के जीवन की कई बाते अनजानी और विचित्र है | आइये जानते है भगवान् श्री कृष्ण के जीवन से जुडी कुछ रहस्मयी बातें --

  1. भगवान् श्री कृष्ण के खड्ग का नाम नंदक, गदा का नाम कौमोदकी और शंख का नाम पांचजन्य था जो गुलाबी रंग का था |
  2. भगवान् श्री कृष्ण के परमधामगमन के समय न तो उनका एक भी केश श्वेत था और न ही उनके शरीर पर कोई झुर्री थी |
  3. भगवान् श्री कृष्ण के धनुष का नाम सारंग था और मुख्य आयुध चक्र का नाम सुदर्शन था| वह लौकिक,  दिव्यास्त्र व् देवास्त्र तीनो रूपों में कार्य कर सकता था उसकी बराबरी के विध्वंशक केवल दो अस्त्र और थे जिसके  नाम थे पाशुपतास्त्र (शिव, कृष्ण और अर्जुन के पास थे ) और दूसरा प्रस्वपास्त्र (शिव, वसुगण,भीष्म और कृष्ण  के पास थे) |
  4. भगवान् कृष्ण की परदादी मारिषा व् सौतेली माँ रोहिणी (बलराम की माँ) नाग जनजाति की थी|
  5. भगवान् श्री कृष्ण से जेल मे बदली गयी यशोदा पुत्री का नाम एकानंशा था, जो आज विंध्यवासिनी के नाम से पूजी जाती है |
  6. भगवान् श्री कृष्ण अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी द्वारिका में 6 महीने से अधिक नहीं रहे |
  7. भगवान श्री कृष्ण ने अपनी औपचारिक शिक्षा उज्जैन के संदीपनी आश्रम में मात्र कुछ महीने में पूरी करली थी |
  8. प्रचलित अनुश्रुतियों के अनुसार भगवान् श्री कृष्ण ने मार्शल आर्ट (कलारपिट्टू  विद्या ) का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था |
  9. कलारपिट्टू का प्रथम आचार्य कृष्ण को माना जाता है इसी कारण नारायणी सेना भारत की सबसे भयंकर  प्रहारक सेना बन गयी थी |
  10. भगवान् श्री कृष्ण के रथ का नाम जैत्र था और उनके सारथि का नाम दारुक/बाहुक था | उनके घोड़े के नाम थे शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक |
  11. भगवान् कृष्ण का शरीर मृदु परन्तु युद्ध के समय कठोर हो जाता था ये कलारपिट्टू विद्या के कारण होता था | ये विद्या  कृष्ण के अलावा द्रौपदी और कर्ण के पास भी थी | 
  12. जनसामान्य में यह भ्रांति स्थापित है कि अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे परन्तु वास्तव में कृष्ण इस विद्या में भी श्रेष्ठ थे और ऐसा सिद्ध हुआ मद्र राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में जिसकी प्रतियोगिता द्रौपदी स्वयंवर के समान परन्तु और कठिन थी |
  13. यहाँ कर्ण व् अर्जुन दोनों असफल हो गए और तब श्री कृष्ण ने लक्ष्य वेध कर लक्ष्मणा से विवाह किया वो कृष्ण को पहले ही पति मान चुकी थी |
  14. भगवान् श्री कृष्ण ने असम में बाणासुर से युद्ध के समय भगवान् शिव से  युद्ध के समय माहेश्वर ज्वर के विरुद्ध वैष्णव ज्वर का प्रयोग करके विश्व का प्रथम जीवाणु युद्ध किया था |
  15.  भगवान् श्री कृष्ण ने कलारपिट्टू की नीव रखी जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुयी |


शनिवार, 3 अक्टूबर 2020

इन ऋषि के श्राप से गोवर्धन पर्वत का हो रहा है अस्तित्व समाप्त |

Tourist's Travelll 03-10-2020 

गोवर्धन पर्वत उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के अंतर्गत आता है  व इसके आसपास के क्षेत्र को ब्रज भूमि भी कहा जाता है।

यह भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थली है। यहीं पर भगवान श्री कृष्ण ने द्वापर युग में ब्रजवासियों को इन्द्र के प्रकोप से बचाने के लिये गोवर्धन पर्वत अपनी कनिष्ठ अंगुली पर उठाया था। गोवर्धन पर्वत को भक्तजन गिरिराज जी भी कहते हैं।

सदियों से यहां दूर-दूर से भक्तजन गिरिराज जी की परिक्रमा करने आते रहे हैं। यह 7 कोस की परिक्रमा लगभग 21 किलोमीटर की है। मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल  गोविन्द कुंड, पूंछरी का लोठा, जतीपुरा, राधाकुंड  कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, दानघाटी और मुखारविंद  इत्यादि हैं।

गोवर्धन का इतिहास
❤ गर्गसंहिता के अनुसार पुराने समय में तीर्थ यात्रा करते हुए पुलस्त्यजी ऋषि गोवर्धन पर्वत के पास पहुंचे तो इसकी सुंदरता देखकर वे मंत्रमुग्ध हो गए और द्रोणाचल पर्वत से निवेदन किया कि मैं काशी में रहता हूं। आप अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दीजिए, मैं उसे काशी में स्थापित कर वहीं रहकर इसकी पूजा करूंगा।

द्रोणाचल पर्वत अपने पुत्र गोवर्धन के लिए दुखी हो रहे थे, लेकिन गोवर्धन पर्वत ने ऋषि से कहा कि मैं आपके साथ चलुंगा, लेकिन मेरी एक शर्त है। आप मुझे जहां रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगा। पुलस्त्यजी ने गोवर्धन की यह बात मान ली। गोवर्धन ने ऋषि से कहा कि मैं दो योजन ऊंचा और पांच योजन चौड़ा हूं। आप मुझे काशी कैसे ले जाएंगे?

पुलस्त्य ऋषि ने कहा कि मैं अपने तपोबल से तुम्हें अपनी हथेली पर उठाकर ले जाऊंगा। तब गोवर्धन पर्वत ऋषि के साथ चलने के लिए सहमत हो गए। रास्ते में ब्रज भूमि आई। उसे देखकर गोवर्धन सोचने लगा कि भगवान श्रीकृष्ण यहां बाल्यकाल और किशोरकाल की बहुत सी लीलाएं करेंगे। अगर मैं यहीं रह जाऊं तो उनकी लीलाओं को देख सकूंगा। ये सोचकर गोवर्धन पर्वत पुलस्त्य ऋषि के हाथों में और अधिक भारी हो गया।

❤ ऋषि को विश्राम करने की आवश्यकता महसूस हुई। इसके बाद ऋषि ने गोवर्धन पर्वत को ब्रज में रखकर विश्राम करने लगे। ऋषि ये बात भूल गए थे कि उन्हें गोवर्धन पर्वत को कहीं रखना नहीं है। कुछ देर बाद ऋषि पर्वत को वापस उठाने लगे लेकिन गोवर्धन ने कहा कि ऋषिवर अब मैं यहां से कहीं नहीं जा सकता। मैंने आपसे पहले ही आग्रह किया था कि आप मुझे जहां रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाउंगा। तब पुलस्त्यजी उसे ले जाने की हठ करने लगे, लेकिन गोवर्धन वहां से नहीं हिला। तब ऋषि ने उसे श्राप दिया कि तुमने मेरे मनोरथ को पूर्ण नहीं होने दिया, अत: आज से प्रतिदिन तिल-तिल कर तुम्हारा क्षरण होता जाएगा। फिर एक दिन तुम धरती में समाहित हो जाओगे। तभी से गोवर्धन पर्वत तिल-तिल करके धरती में समा रहा है। कलियुग के अंत तक यह धरती में पूरा समा जाएगा।

भगवान श्रीकृष्ण ने इसी पर्वत को इन्द्र का मान मर्दन करने के लिए अपनी सबसे छोटी उंगली पर तीन दिनों तक उठा कर रखा था और सभी वृंदावन वासियों की रक्षा इंद्र के कोप से की थी।
गिर्राज जी द्वापर युग के है इसके प्रमाण आज भी गिर्राज अर्थात गोवर्धन पर्वत पर मिलते है|
जिनमे देवराज इंद्र का मान मर्दन के देवराज इंद्र का गोवर्धन पर्वत पर आना, एरावत हाथी के पैर के चिन्ह, सुरभि गाय की दूध की धार के चिन्ह, सिन्दूरी शिला, बारिश के निशान, बलराम और कृष्ण के पैरो के निशान, राधा कृष्ण के रास के प्रमाण, सोलह श्रृंगार इत्यादि अनेक प्रमाण मिलते है|


बुधवार, 30 सितंबर 2020

आइये जानते है ब्रज के केदारनाथ धाम के बारे में

चौरासी कोस परिक्रमा के तहत राजस्थान की सीमा में मौजूद गाँव विलोंद के निकट एक पर्वत पर भगवान् केदारनाथ शेषनाग रुपी एक विशाल श्वेत पत्थर की चट्टान के नीचे छोटी सी गुफा में विराजमान है |

राधा और कृष्ण की लीलाओ के सबसे बड़े साक्षी के रूप में भोले नाथ को माना जाता है | यहाँ तक की इस ब्रज क्षेत्र में भगवान् केदारनाथ को परिलक्षित करता हुआ एक महत्वपूर्ण स्थान भी है |माना जाता है कि द्वापरयुग से ही ब्रज में भगवान् केदारनाथ विराजमान है और आजतक अपने उसी दिव्य और विचित्र स्वरूप के दर्शनों से भक्तों को आनंदित कर रहे है | इस चट्टान की तलहटी में गौरीकुंड स्थित है | इस कुंड के जल से जलाभिषेक करने का विशेष महत्व् है | मंदिर करीब 500 फुट ऊँचाई पर है और करीब 450 सीड़ियाँ चड़कर श्रद्धालू दर्शनों के लिए मंदिर तक पहुँचते है | गुफानुमा मंदिर में पत्थर से बना विचित्र शिवलिंग है | लाल पत्थर के शिवलिंग में भगवान् शिव के तीनो नेत्र, मस्तक, मुख, नाक, होंठ, चन्द्रमा, गंगा नदी, कुंडल, साँप और रुद्राक्ष की माला इत्यादि स्पष्ट दिखाई देते है | वहीं  एक पहाड़ी पर नंदी स्वरूप विशालकाय शिला मौजूद है| मंदिर से ठीक पहले एक पत्थर पर प्राकृतिक रूप से गणेश भगवान् की छवि भी मौजूद है | शिवलिंग की सुरक्षा के लिए उनके ऊपर शेषनाग के रूप में एक पहाड़ मौजूद है |

  


धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान् श्री कृष्ण के पालनकर्ता नन्द बाबा और यशोदा ने अपनी वृद्धावस्था में कृष्ण के सम्मुख चारों धामों की तीर्थयात्रा की इच्छा जताई | यह जानकार श्री कृष्ण ने सभी धामों से ब्रज क्षेत्र में प्रतिस्थापित होने का आह्वान किया | तब से यह मान्यता है कि चारों धाम के साथ अन्य तीर्थों के प्रतिरूप ब्रज क्षेत्र में आज भी मौजूद है | स्थानीय इतिहासकारों के अनुसार द्वापरयुग में जब नन्द बाबा और यशोदा को संतान प्राप्त नहीं हुई तो उन्होंने भगवान् शिव संकर से मन्नत मांगी कि पुत्र होने पर वे चार धाम की यात्रा करेंगे |
इसके बाद करीब करीब वृद्धावस्था में श्री कृष्ण उनके यहाँ छोटे बालक के रूप में अवतरित हुए |कृष्ण की गौ चरण लीला के बाद नन्द बाबा और यशोदा की चार धाम यात्रा करने का संकल्प याद आया इसके बाद उन्होंने उन्होंने तीर्थ यात्रा पर जाने की तैयारी शुरू कर दी लेकिन श्री कृष्ण ने योग माया से चारों धामों का आह्वान कर उन्हें ब्रज में ही बुला लिया और एक एक करके सारे तीर्थ ब्रज में आकर उपस्थित हो गए | इसलिए माना जाता है कि चारों धामों के साथ अन्य तीर्थ भी ब्रज में ही है | उन्ही एक धाम में से केदारनाथ धाम  की भी यहाँ इस रूप में मौजूदगी है |
नजदीकी नंदगाँव में श्री नन्द मंदिर के सेवायत बताते है कि पर्यटन की दृष्टि से यह स्थान अभी तक उपेक्षित ही रहा है | भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की निगाह भी अभी तक इस पर नहीं पड़ी है |स्थानीय लोग अपने प्रयासों से ही इसकी देखवाल करते रहते है | 
अगर आपको केदारनाथ धाम घूमना है तो उसका मार्ग आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके देख सकते है |
https://goo.gl/maps/miifaFbaYf9dkf4z6  



राधा रानी का जन्म नहीं हुआ था वो कृष्ण की तरह अजन्मी है उनका प्राकट्य स्थान कहा है? आइये जानते है l

राधा रानी का जन्मदिवस या प्राकट्य दिवस राधाष्टमी के नाम से जाना जाता है‌‍ l भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को रावल और बरसाना में धूमधाम से राधा रानी का जन्मदिवस मनाया जाता है l 

ऐसे हुआ था रानी का जन्म 
पुराणों के अनुसार आज से पांच हजार दो सौ साल पहले वृषभानु और कीर्तिदा के यहां राधा जी का जन्म हुआ था। वह मथुरा जिले के गोकुल महावन कस्बे के पास रावल गांव में रहा करते थे। पुराणों में तो यह बात भी कही गई है कि राधा ने ने अपनी मां के गर्भ से जन्म नहीं लिया था। राधा जी की माता ने अपने गर्भ में वायु को धारण कर रखा था। कीर्तिदा ने योगमाया की प्रेरणा से वायु को जन्म दिया था। लेकिन राधा जी ने अपनी स्वंय की इच्छा से वहां पर प्रकट हुई थी। राधा जी कलिंदजा कूलवर्ती निकुंज प्रदेश के एक सुन्दर मंदिर में अवतरित हुई थीं 



 उस समय शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि और सोमवार का दिन , अनुराधा नक्षत्र और मध्यान्ह काल के 12 बज रहे थे। जिस समय राधा जी का जन्म हुआ था। उस समय सभी नदियों का जल पवित्र हो गया था। सभी दिशाएं खुशी से झूम उठी थी। वृषभानु और कीर्तिदा ने अपनी पुत्री के जन्म पर लगभग दो लाख गाय का दान ब्राह्मणों को किया था।राधा जी के जन्म के बारे में एक और मत विद्वानों के द्वारा कहा जाता है। जिसके अनुसार वृषभानु जब एक सरोवर के पास से गुजर रहे थे। उस समय एक सुंदर सी कन्या कमल के फूल पर तैर रही थी। जिसे वृषभानु अपने घर ले आए और उसका पुत्री के रूप में पालन - पोषण किया। माना जाता है कि राधा जी भगवान श्री कृष्ण से ग्यारह महिने बड़ी थी। लेकिन राधा जी ने तब तक अपनी आखें नही खोली थी। जब तक उन्होंने श्री कृष्ण के दर्शन नहीं कर लिए थे। वृषभानु और कीर्तिदा को यह जल्द ही पता चल गया था कि राधा जी अपनी आखें अपनी मर्जी से नहीं खोल रही है। यह देखकर उन्हें अत्यंत दुख हुआ। इसके बाद एक दिन जब यशोदा जी श्री कृष्ण के साथ गोकुल से वृषभानु और कीर्तिदा के घर आती हैं। तब दोनों ने यशोदा जी का बहुत ही आदर सत्कार किया।

अगर आप राधा रानी के प्राकट्य स्थान पर जाना चाहते हो यानी कि रावल ग्राम जाना चाहते हो तो इस लिंक पर क्लिक करके इस रस्ते से जा सकते हो 
https://goo.gl/maps/bPkzphRjdRKeP8V4A

शनिवार, 19 सितंबर 2020

मथुरा के वह मन्दिर जहां एक बार आप चले गए तो बार बार आने को दिल करेगा।

 मथुरा के प्रसिद्ध मन्दिर 

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Temples of mathura

मथुरा, हिंदुओं के सबसे चहेते, श्री कृष्ण का जन्मस्थल है। रास-रचैया, गिरिधर, गोपाल, कन्हैया – ऐसे अनगिनत नाम हैं इनके। अपनी चंचल बातों से सबको मोहित कर, ये सबके चहेते बन जाते थे। रास लीला हो या जन्माष्टमी व होली का पर्व यहाँ सब बड़े ही भव्य तरीके से मनाया जाता है। यह भारत के पवित्र स्थलों में से एक है। मुरलीधर जब बंसी बजाते थे तब सब दीवाने हो जाते थे और पूरा मथुरा उस स्वर से गूँज उठता था। उस मधुर स्वर की गूँज जैसे आज भी कानों में सुनाई पड़ती है। मथुरा के मंदिर अभी भी श्री कृष्ण की स्मृति बाँधे हुए है। इसी स्मृति से मथुरा का हर कोना पुलकित हो उठता है।

मथुरा का इतिहास

History Of Mathura

कृष्ण नगरी से जुडी ऐसी अनेकों कथाएँ हैं कि भगवान कृष्ण ने हमेशा बुराई का विनाश करते हुए मथुरा वासियों की सहायता की है। अपने मामा कंस द्वारा किए गए सभी दुराचार का मुँह तोड जवाब देकर उसे सबक सिखाया है। जब-जब मथुरावासियों पर संकट आया श्री कृष्ण उन सभी संकटों से लोगों को मुक्त करवाया। यह स्थान कृष्ण की अनगिनत महान कथाओं का प्रमाण है। जिन्हें लोगों ने आज भी याद रखा है और समय-समय पर इनका संचार किया है।

10 मथुरा के मंदिर

यहाँ का माहौल भक्ति-भाव में डूबोने वाला है। जहाँ आकर आप मन की शांति पाऐंगे। मथुरा जी के मंदिर विश्वभर में प्रसिद्ध हैं। उन्हीं में से कुछ मंदिरों की सूची यहाँ दी गई है:

1. श्री कृष्ण जन्मभूमी मंदिर

Sri Krishna Janam Bhumi Temple

ये वही स्थान है जहाँ श्री कृष्ण ने जन्म लिया था। मथुरा के मंदिर में इसका सर्वोच्च स्थान है। यहाँ के स्थानीय लोगों का कहना है कि इस मंदिर का निर्माण राजा वीर सिंह बुंदेल ने करवाया था जो श्री कृष्ण के ही वंशज थे। यहाँ कंस का पत्थर से बना बड़ा कारावास है। यहाँ का सबसे आकर्षक मंदिर का वो छोटा कारावास है जहाँ कृष्ण का जन्म हुआ था। यह मंदिर अपनी पवित्रता से आपके रोम-रोम को साधना में लीन कर देगा। बहुत ही खुबसूरती से इसे बनाया गया है। यहाँ कृष्ण की सफ़ेद मार्बल से बनी मूर्ति है जो अपने अस्तित्व का परिचय देती है। यहाँ आने का सबसे उचित समय है जन्माष्टमी व होली का पर्व। ये त्योहार भव्यता से यहाँ मनाया जाता है।



Dwarkadhish Temple

यह भारत का मशहूर व ऐतिहासिक पवित्र स्थल है जो श्री कृष्ण को समर्पित है। इस मंदिर का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि कृष्ण द्वारका में आकर बस गए और उन्होंने अपनी आखरी साँस भी यहीं ली। मंदिर में काले मार्बल से बनी कृष्ण की प्रतिमा है और उसी के समीप सफ़ेद मार्बल से बनी उनकी प्रिय राधा की प्रतिमा भी है जिनकी सुंदरता अतुल्नीय है। इसलिए यहाँ मथुरा के मंदिर की फोटो लेना आवश्यक हो जाता है। श्रद्धालु यहाँ अधिकतर जन्माष्टमी के अवसर पर आते हैं क्योंकि उस वक्त यहाँ का नज़ारा आँखों में घर कर जाता है।

3. प्रेम मंदिर

Prem Templre

मथुरा वृंदावन यात्रा करते वक्त अगर आप मथुरा का प्रेम मंदिर देखना भूल जाते है तो आपको पछतावा होगा। भगवान के प्रति प्रेम को समर्पित है यह मंदिर। मंदिर में राधा-कृष्ण व राम-सीता की मूर्तियाँ हैं। मंदिर का माहौल शांतिपूर्ण है जो अंतःकरण तक शांति का संचार कर देगा। 2001 में इस मंदिर को जगदगुरु श्री कृपालुजी महाराज ने आकार दिया। बृजवासियों की उपस्थिति से आरती के समय का माहौल आध्यात्मिकता में लीन कर देता है। सफ़ेद मार्बल से बने इस मंदिर की वास्तुकला भी तारीफ के काबिल है।

4. गीता मंदिर

Geeta temple

यह मंदिर बिरला मंदिर के नाम से भी प्रसिद्ध है। मथुरा के मंदिर में यह मंदिर भी विशेष है। इस मंदिर का मुख्य आकर्षण है मंदिर की दीवारों पर श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को युद्ध भूमि में दिए गए उपदेशों की नक्काशी। जिसे बड़ी महीनता व कुशलता के साथ दीवारों पर बनाया गया है। मंदिर में प्रवेश करते ही स्तंभों पर लिखे भगवद्गीता के 18 अध्यायों के आप साक्षी बनेंगे। मंदिर का निर्माण लाल बलुआ पत्थर से भारतीय व पाश्चात्य वास्तुकला से किया गया है। यहाँ कृष्ण, नारायण, राम, लक्ष्मी व सीता की मनोरम मूर्तियाँ मौजूद है

Banke Bihari temple

बाँके बिहारी-श्री कृष्ण का एक और नाम जिसका अर्थ है: परम आनंदकर्ता। सबको आनंद देने वाला। यहाँ आप मदमस्त होकर खड़े श्रीकृष्ण को हाथ में बाँसुरी लिए हुए देखेंगे। कृष्ण जब बेहद खुश होते थे तब वह आनंदित होकर बाँसुरी बजाते थे। इसी को यहाँ प्रतिमा का आकार दिया गया है। जिसे देखकर आपके चहरे पर भी मुस्कुराहट आ जाएगी। मंदिर के मुख्य प्रवेश पर गहरे पीले व भूरे रंग की पारंपरिक डिज़ाइन बनाया गया है। यह मंदिर का मुख्य आकर्षण है।

6. नीधिवन मंदिर

Nidhivan Temple

यह मंदिर धार्मिक यात्रियों के साथ-ही-साथ प्रकृति प्रेमियों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है। मंदिर के चारों तरफ पेड़-ही-पेड़ हैं जो ताज़गी का एहसास कराते हैं। यह मान्यता है कि सूरज ढलने के बाद मंदिर का प्रवेश द्वार बंद कर दिया जाता हैं क्योंकि उस वक्त श्री कृष्ण राधा व गोपियों के साथ रासलीला करते हैं। यह एक रहस्यात्मक मंदिर है जिसकी पहेली अभी तक सुलझी नहीं है। इसी कारण यह मंदिर चर्चा का विषय बना रहता है।

7. महाविद्या देवी मंदिर

Mahavidya Devi Temple

यह मथुरा देवी का मंदिर है जो पहाड़ों पर स्थित है जहाँ तक पहुँचने के लिए 30-40 सीढ़ियाँ का रास्ता है। माना जाता है कि नंद बाबा जिन्होंने श्री कृष्ण का पालन किया था यह उनकी कुल देवी है। नंद इनकी पूजा-अर्चना करने यहाँ आते थे। मंदिर की आकृति बहुत ही सरल है पर इसकी भी एक अलग मान्यता है। इसलिए यह यात्रियों के बीच प्रचलित है। मंदिर में सफ़ेद मार्बल से बनी देवी की मूर्ति है जिनकी आँखों में दैव्य चमक है।

8. श्री रंगजी मंदिर

Shri Rangji Mandir

वृंदावन का सबसे बड़ा मंदिर जो भगवान विष्णु को समर्पित है। द्रविड़ वास्तुकला से इस मंदिर के हर कोने को कुशलता से बनाया गया है। मंदिर में विष्णु की शेषनागों के नीचे विश्राम करते हुए एक सुंदर प्रतिमा है। इस पावन मंदिर में राम, लक्ष्मण, सीता, नरसिंहमा, वेणुगोपाल, रामानुजाचार्य की मूर्तियाँ भी हैं। मंदिर के नियम काफी सख्त है तो आपको नियमों का पालन करना होगा।

9. श्री कृष्ण बलराम मंदिर

Shree Krishna Balram Temple In Mathura

प्रवेश द्वार के दोनों तरफ बने मोर आपका स्वागत करने के लिए बनाए गए हैं। सफ़ेद मार्बल से बना यह मंदिर अपनी आकर्षक वास्तुकला का प्रमाण देता है। मंदिर के तीन अल्तर है-पहले में श्री श्री गौरा निताई की प्रतिमा है। दूसरे में कृष्ण व बलराम की मूर्ति है व तीसरे में श्री श्री राधा श्याम सुंदर और गोपी-विशाखा व ललिता की मूर्ति है।

10. श्री राधा वल्लभ मंदिर

Shri Radha Vallabh

आज से 450 वर्ष पूर्व मथुरा जिला में इस मंदिर का निर्माण हुआ। वृंदावन और राजस्थान वासियों के मन में इस मंदिर की बहुत मान्यता है। यह भी मथुरा का महत्वपूर्ण मंदिर है। यहाँ भक्ति-भाव के संगीतों से माहौल आध्यात्मिक बना रहता है। आप यहाँ आकर बहुत शांताप्रिय वातावरण पाऐंगे। मथुरा आकर आपको कुछ समय इस मंदिर को भी देना चाहिए।

गोकुल ग्राम

  आज से लगभग 5 हजार 125 वर्ष पूर्व उत्तरप्रदेश के मथुरा में  भगवान कृष्ण   का जन्म हुआ था। गोकुल मथुरा से 15 किलोमीटर दूर है। यमुना के इस पा...